मृत्यु के बाद और जन्म से पहले, क्या यही रहस्य है?
ब्रह्मांड अनंत ऊर्जा का स्रोत है। इसकी प्रत्येक तरंग, प्रत्येक प्रकाश-कण और प्रत्येक गति में एक अदृश्य चेतना विद्यमान है। मनुष्य इस चेतना का अंश है, परंतु जब तक वह अपने शरीर की सीमाओं में बंधा रहता है, तब तक इस सत्य को केवल समझ सकता है, अनुभव नहीं कर सकता। जब आत्मा शरीर की सीमाओं को पार करती है, तभी वास्तविक ज्ञान आरंभ होता है।
मनुष्य का शरीर भौतिक तत्वों से निर्मित है। यह पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश का संयोजन है। इन तत्त्वों की अपनी सीमाएँ हैं, जो समय, गति और दूरी से बंधी हैं। शरीर का अस्तित्व इस भौतिक व्यवस्था में सीमित है, इसलिए शरीर का ब्रह्मांड में यात्रा करना असंभव है। लेकिन आत्मा, जो चेतना का अंश है, इन सीमाओं से परे है। वह नष्ट नहीं होती, केवल अनुभव बदलती है। यही कारण है कि कहा गया है कि आत्मा कभी मरती नहीं, गलती नहीं, और न ही सिकुड़ती है।
आत्मा ऊर्जा है, और ऊर्जा नष्ट नहीं होती। शरीर केवल उसका माध्यम है। जब यह माध्यम कमजोर पड़ जाता है, जब शरीर आत्मा के कंपन को संभालने में असमर्थ हो जाता है, तब आत्मा उसे त्याग देती है। यह त्याग मृत्यु नहीं, एक रूपांतरण है। आत्मा तब नए अनुभव की दिशा में प्रस्थान करती है, जैसे नदी समुद्र में विलीन होकर अपने रूप को बदलती है, पर अस्तित्व बनाए रखती है।
जब आत्मा शरीर से निकलती है, तब उसकी यात्रा आरंभ होती है। यही यात्रा रहस्य का प्रथम द्वार है। यह कोई कल्पना नहीं, बल्कि चेतना की गति का अनुभव है। इस यात्रा में आत्मा भौतिक सीमाओं से मुक्त होकर सूक्ष्म लोकों में प्रवेश करती है। वह पहले प्राणमय तल में जाती है, जहाँ ऊर्जा का सूक्ष्म प्रवाह अनुभव होता है। फिर मनमय तल में, जहाँ विचार और स्मृतियाँ एक-दूसरे से गुंथी हुई दिखाई देती हैं। इसके बाद वह विज्ञानमय तल में पहुँचती है, जहाँ वह अपने कर्मों और उद्देश्य को देखती है। अंततः वह आनंदमय तल में प्रवेश करती है, जहाँ आत्मा और ब्रह्म एकाकार हो जाते हैं। यही अवस्था मोक्ष या तत्त्वज्ञान कहलाती है।
रहस्य और तत्त्व एक ही मार्ग के दो छोर हैं। रहस्य वह है जो अनुभव में छिपा है, और तत्त्व वह है जो अनुभव के बाद भी अपरिवर्तित रहता है। जब आत्मा देह, विचार और कर्मों से परे जाती है, तब वह उस सत्य को पहचानती है जो न कभी जन्म लेता है, न कभी नष्ट होता है। यही तत्त्व है, यही ब्रह्म है। रहस्य अनुभव है, तत्त्व सत्य है। जब दोनों का मिलन होता है, तब ब्रह्मांड स्वयं को प्रकट करता है।
ब्रह्मांड को जानना केवल अध्ययन नहीं, अनुभव की साधना है। आत्मा जब शरीर से निकलकर अपने मार्ग को पहचानती है, तो उसका पहला कार्य अपने आप को नियंत्रित करना होता है। यही ब्रह्मांडीय ज्ञान का प्रथम चरण है। शरीर के बाहर आत्मा स्वतंत्र होती है, पर यदि वह नियंत्रण में न रहे तो वह अनगिनत ऊर्जा स्तरों में भटक सकती है। आत्मसंयम ही सच्चे ज्ञान की शुरुआत है। योगियों ने इसी अवस्था को देहातीत अवस्था कहा है, जहाँ साधक न शरीर होता है, न मन, केवल चेतना के रूप में अस्तित्व रखता है।
यह आत्मसंयम ही साधक को ब्रह्मांड से जोड़ता है। जब चेतना नियंत्रित होकर सूक्ष्म स्तर पर स्थिर होती है, तब वह ब्रह्मांडीय तरंगों को ग्रहण करने लगती है। यह संवाद मौन होता है, परन्तु स्पष्ट होता है। साधक को यह अनुभव होता है कि ब्रह्मांड कोई बाहरी सत्ता नहीं, वह स्वयं उसी का विस्तार है।
ब्रह्मांड के इस मौन संवाद को समझना आसान नहीं। सूर्य बोलता नहीं, पर उसका प्रकाश सारा ज्ञान दे जाता है। उसकी हर किरण जीवन का संदेश लेकर आती है। चंद्रमा बोलता नहीं, पर उसकी शीतलता मानव मन के ज्वार को प्रभावित करती है। हर ग्रह, हर नक्षत्र अपनी गति में बोलता है, परंतु उसका संवाद शब्दों में नहीं होता। ब्रह्मांड मौन में ही बोलता है, और उसे सुनने के लिए कान नहीं, चेतना चाहिए।
मौन ही ब्रह्मांड की भाषा है। जो साधक इसे सुनना सीख लेता है, वह शब्दों से परे सत्य को जान लेता है। जब आत्मा इस मौन को समझने लगती है, तब वह जानती है कि ब्रह्मांड किसी बाहर की चीज़ का नाम नहीं, बल्कि उसकी अपनी अंतःचेतना का विस्तार है। तब उसे यह बोध होता है कि वह न सीमित है, न असहाय। वह वही है जो सूर्य में चमकता है, चंद्र में शीतलता बनकर बहता है, और हर ग्रह की गति में संतुलन बनाता है।
शरीर से आत्मा की यात्रा, रहस्य से तत्त्व तक का मार्ग, और मौन से संवाद की अनुभूति, यही ब्रह्मांडीय ज्ञान का क्रम है। शरीर का उद्देश्य इस अनुभव को संभव बनाना है, और आत्मा का उद्देश्य उसे पहचानना। रहस्य वहीं प्रकट होता है जहाँ व्यक्ति स्वयं से परे होकर स्वयं को देख पाता है। जब यह अनुभव होता है, तब वह जान लेता है कि मृत्यु अंत नहीं, एक द्वार है; और जीवन केवल आरंभ नहीं, एक प्रयोगशाला है जहाँ आत्मा अपनी पूर्णता की खोज करती है।
ब्रह्मांड मौन है, पर जीवित है। वह सुनता है, बोलता है, पर शब्दों में नहीं। जो साधक उसके इस मौन को सुन लेता है, वही जान पाता है कि आत्मा और ब्रह्मांड अलग नहीं। आत्मा उसी मौन की प्रतिध्वनि है, और ब्रह्मांड उसका विस्तार। यही है अस्तित्व का परम रहस्य, और यही तत्त्व, जिसे जानने के बाद कुछ शेष नहीं रहता।